जीवन के अंतिम क्षणों में जब मनुष्य मृत्यु शैया पर पड़ा पड़ा अपने सम्पूर्ण जीवन के सुकर्मों और कुकर्मों का अवलोकन करता हुआ उनका विश्लेषण करता है तो समीपस्थ पड़ी हुई ,और मिलते हुए सभी प्रकार की सुख सुविधाओं का उसको उनका अनुभव नहीं होता यानी की वो अवलोकन करने में इतना निग्मन हो जाता है कि उधर ध्यान ही नहीं जाता ,काश वो इतना ही मग्न यदि अपने पूर्ण जीवन में हो जाता तो आज उसे ये दिन देखना ही नहीं पड़ता,
ऐसा में कुछ बुजुर्गों से जो की मृत्यु शैया परपड़े हुए थे ,उनसे वार्तालाप करके लिख रहा हूँ और उनका अंतिम वाक्य होता था की कर्मों से बढ़कर कुछ भी नहीं है ,इसलिए मनुष्य कुछ करे या ना करे परन्तु कर्म सदैव ही अच्छे करने चाहिए
ऐसा में कुछ बुजुर्गों से जो की मृत्यु शैया परपड़े हुए थे ,उनसे वार्तालाप करके लिख रहा हूँ और उनका अंतिम वाक्य होता था की कर्मों से बढ़कर कुछ भी नहीं है ,इसलिए मनुष्य कुछ करे या ना करे परन्तु कर्म सदैव ही अच्छे करने चाहिए
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